लोंजाइनस का उदात्त सिद्धान्त | Longinus ka Udatt Siddhant | Longinus ki Udatt ki avadharna | Pashchatya Kavya Shastra
यूनान के साहित्य चिन्तकों की परम्परा में लोंजाइनस का गौरवपूर्ण स्थान है। वे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने काव्य के विषय और काव्य की गरिमा का सम्बन्ध कवि के व्यक्तित्व से स्थापित करते हुए कवि को महत्त्व प्रदान किया । उनसे पूर्व अरस्तू ने अनुकरण सिद्धान्त के द्वारा काव्य की विषयवस्तु को महत्त्व देते हुए कवि के निजी व्यक्तित्व की उपेक्षा की थी । Longinus ka Udatt Siddhant पाश्चात्य काव्यशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। आज हम इसको विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे ।
इस सिद्धान्त को पूरी तरह से और अच्छे से समझने के लिए आप नीचे जो वीडियो है उसे भी देख सकते हैं ।
लोंजाइनस ने अनुकरण सिद्धान्त की सर्वथा उपेक्षा करते हुए कवि के व्यक्तित्व और कवि की मौलिक रचना का प्रतिपादन किया । वस्तुतः जहाँ प्लेटो घोर आदर्शवादी थे, अरस्तू वस्तुवादी या यथार्थवादी थे, वहाँ लोंजाइनस स्वच्छन्दतावादी आलोचक थे। लोंजाइनस कब और कहाँ पैदा हुए, यह निश्चित नहीं है । कुछ उन्हें प्रथम शताब्दी का अप्रसिद्ध लेखक मानते हैं तो कुछ उन्हें तृतीय शताब्दी का सुप्रसिद्ध लेखक मानते हैं। लोंजाइनस के उदात्त चरित्र को देखते हुए उनका समय तृतीय शताब्दी माना जा सकता है ।
लोंजाइनस की रचना ‘पेरिइप्सुस’
‘पेरिइप्सुस’ यूनानी नाम है । इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है ‘On the Sublime’ (औदात्य पर विचार) । यह रचना अनेक शताब्दियों तक अज्ञात एवं अप्रकाशित रही । 1554 ई. में इस ग्रन्थ के अस्तित्व का पता चला और तदनन्तर 1652 ई. में इसका अंग्रेजी अनुवाद हुआ|
‘पेरिइप्सुस’ लगभग 60 पृष्ठों की लघुकाय कृति है । इसे पत्ररूप में रोमन मित्र को संबोधित करके लिखा गया है । अध्यायों का आकार बहुत ही असमान है— कुछ अध्याय दो - तीन पृष्ठों के हैं तो कुछ केवल सात-आठ पंक्तियों के हैं । इसमें छोटे- बड़े कुल 44 अध्याय है । पूरी पुस्तक का प्रायः एक तिहाई भाग लुप्त है । किन्तु समीक्षाशास्त्र का यह बहुत बड़ा सौभाग्य है कि खंडित रूप में सही, यह महत्त्वपूर्ण कृति प्रकाश में आयी। विद्वानों ने एक स्वर में ‘पेरिइप्सुस’ और ‘लोंजाइनस’ दोनों की प्रशंसा की है ।
लोंजाइनस से पूर्व काव्य का प्रयोजन
लोंजाइनस से पूर्व काव्य का प्रयोजन पाठक और श्रोता को आनन्द प्रदान करना, शिक्षा देना और विचार उत्पन्न करना था । यदि होमर-काव्य की सफलता पाठकों को मोहित करने में मानते थे तो अरिस्टोफनीस काव्य का लक्ष्य पाठकों को सुधारना मानते थे। लोंजाइनस ने अनुभव किया कि इसमें कुछ कमी है, क्योंकि काव्य में इन तीनों बातों से भी कुछ अधिक होता है । अतः उन्होंने निर्णायक रूप में यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि काव्य या साहित्य का चरम उद्देश्य चरम उल्लास प्रदान करना है तथा पाठक को भावाभिभूत करना है। आशय यह है कि लोंजाइनस की दृष्टि में भव्य और उच्च कविता वही है जो पाठकों को इतना निमग्न और तन्मय कर दे कि वह अपने को भूल जाएँ, और ऐसी उच्च भावभूमि पर पहुँच जाएँ कि बुद्धि शून्य हो जाए और वर्णनीय विषय विद्युत के प्रकाश की तरह आलोकित हो उठे।
औदात्य का स्वरूप
‘पेरिइप्सुस’ (औदात्य) ग्रन्थ का मूल प्रतिपाद्य विषय औदात्य सिद्धान्त है । लोंजाइनस ने उदात्त को परिभाषित करते हुए अनेक बातें कही हैं
- 1. उच्च कोटि की अभिव्यक्ति और उत्कृष्टता का नाम औदात्य है ।
- 2. औदात्य का कार्य पाठकों को भावाभिभूत करना है या सम्मोहित करना है।
- 3. औदात्य अपनी प्रबल शक्ति के कारण सभी पाठकों को अनायास ही बहा ले जाता है ।
- 4. यदि किसी रचना में उदात्त विचार हो तो वह विद्युत की भाँति चमककर समूची विषयवस्तु को प्रकाशित कर देता है।
उपर्युक्त कथनों का विश्लेषण करने पर यह विदित होता है कि औदात्य शैली का कोई विशेष गुण है, उसमें बुद्धि तत्त्व की प्रधानता न होकर भाव तत्त्व की प्रधानता है तभी वह पाठकों को भावाभिभूत कर सकता है । साथ ही वह अत्यन्त प्रभावशाली है और उसके अलौकिक आलोक से विषयवस्तु चमक उठता है ।
इस प्रकार लोंजाइनस ने औदात्य को व्यापक अर्थ प्रदान किया है । भावपक्ष से लेकर कलापक्ष तक औदात्य की सत्ता है । यह केवल कला का ही नहीं, कलाकार या कवि का भी गुण है । जब कवि के व्यक्तित्व में औदात्य होता है तो वह उत्कृष्ट विचार, भाव, विषय और शैली को अपनाता है । यही औदात्य सुसमन्वित रूप में प्रकट होकर पाठक की आत्मा को झँकृत कर देता है, जिसे आनन्द कहते हैं ।
औदात्य का आधार
औदात्य के स्वरूप निर्धारण के बाद लोंजाइनस दूसरा प्रश्न उठाते हैं कि औदात्य का आधार क्या है । वह कवि की जन्मजात प्रतिभा पर आधारित है या अभ्यासजन्य प्रतिभा पर ? वह सहज है या उत्पाद्य (उत्पादन योग्य) ? इन प्रश्नों पर विचार करते हुए लोंजाइनस ने मध्यमार्ग का अनुसरण किया है, उनके विचार से औदात्य कवि की जन्मजात प्रतिभा और अभ्यासजन्य प्रतिभा दोनों पर आधारित है ।
जैसे मूल भावों पर बुद्धि का नियंत्रण आवश्यक है वैसे ही जन्मजात प्रतिभा पर अभ्यासजन्य प्रतिभा का अंकुश अपेक्षित है । यदि उस पर ज्ञान या अभ्यास का अंकुश न रहे तो वह अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है । इसलिए औदात्य की उत्पत्ति के लिए सहज प्रतिभा की जितनी अपेक्षा है, उतनी ही अभ्यास की भी ।
तात्पर्य यह है कि औदात्य के लिए न केवल कवि की प्रतिभा वरन् ज्ञान और श्रम भी आवश्यक है । लोंजाइनस ने यहाँ कवि के समूचे व्यक्तित्व को महत्त्व दिया है। इसलिए उसे साहित्य में व्यक्तिवादी या स्वच्छन्दतावादी दृष्टि का मूल प्रवर्तक कहा जाता है ।
औदात्य के पाँच स्रोत
लोंजाइनस औदात्य के पाँच स्रोत मानते हैं-
- 1. उदात्त विचार एवं विषयवस्तु का चयन अंतरंग तत्व (जन्मजात प्रतिभा))
- 2. उदात्त भाव
- 3. अलंकारों का समुचित प्रयोग
- 4. उदात्त या उत्कृष्ट भाषा बहिरंग तत्व (अभ्यासजन्य प्रतिभा-कलागत)
- 5. गरिमामय रचना विधान
इन स्रोतों में प्रथम और द्वितीय स्रोत बहुत कुछ जन्मजात प्रतिभा से सम्बन्धित हैं और शेष कला से सम्बद्ध हैं, अर्थात् प्रथम दोनों कवि की जन्मजात प्रतिभा की देन हैं और शेष कवि की अभ्यासजन्य प्रतिभा की ।
1. उदात्त विचार एवं विषयवस्तु का चयन
औदात्य के पाँचों स्रोतों में प्रथम स्थान कवि के उदात्त या उत्कृष्ट विचार हैं । लोंजाइनस ने लिखा है कि “उदात्त विचार महान् आत्मा की प्रतिध्वनि है ।” यहाँ महान् आत्मा का अर्थ है कि व्यक्ति (कवि) के चरित्र, आचार, व्यवहार सभी महान् हों ।
जिस कवि का निजी व्यक्तित्व उत्कृष्ट होगा वह स्वतः ही उदात्त विषयों, महान् घटनाओं एवं महापुरुषों के चित्रण में रुचि लेता हुआ उनका चित्रण भी उदात्त रूप से करेगा । महापुरुषों के चित्रण में कवि को उनके साथ एकाकार होना पड़ता है । अतः उनका चित्रण वही कर सकेगा जिसका चरित्र और आचरण उत्कृष्ट हो । जीवनभर निम्नस्तरीय विचारों से ग्रस्त व्यक्ति उन महापुरुषों का चित्रण नहीं कर सकता । ऐसे व्यक्तियों की रचना भी स्तुत्य और अमर नहीं हो सकती । इसका उदाहरण इलियड के रचयिता होमर के व्यक्तित्व और कृतित्व से दिया जा सकता है ।
होमर के महान् विचार ही उसकी रचना में अभिव्यक्त हुए हैं । निराला के महान् विचार ही “राम की शक्ति पूजा” में व्यक्त हुए हैं । महान् आदर्शों का अनुकरण ही विचार की महत्ता को समृद्ध करता है । इसलिए लोंजइनस की दृष्टि में महान् कवियों की रचनाओं का अनुसरण करना चाहिए । कवियों को प्राचीन श्रेष्ठ रचनाओं का ज्ञान आवश्यक है । इसके लिए लोंजाइनस ने कवि की प्रतिभा और महान् कवियों के ग्रन्थों का अनुशीलन आवश्यक माना
2. उदात्त भाव
‘पेरिइप्सुस’ के विभिन्न प्रसंगों में लोंजाइनस के कथनों से ज्ञात होता है कि वे भाव की तीव्रता या प्रबलता को आवश्यक मानते हैं । भाव की तीव्रता के कारण ही वे होमर के ‘इलियड’ काव्य को उनके ‘ओडिसी’ से श्रेष्ठ बताते हैं। महान् विचारों के समान भव्य भावों का भी सम्बन्ध महान् आत्माओं से है । लोंजाइनस भावों के अतिरेक से भी बचने की राय देते हैं जिससे भाव अविश्वसनीय या असत्य न हो जाए । भावातिरेक काव्य के आस्वादन में बाधक है ।
दूसरी बात यह है कि लोंजाइनस के अनुसार भावों का प्रयोग उचित स्थान पर ही होना चाहिए ।
तीसरी चीज यह है कि लोंजाइनस के अनुसार भावों के दो भेद हैं- भव्यभाव और निम्नभाव । दया, शोक, भय आदि भाव उनकी दृष्टि में निम्न या क्षुद्र भाव हैं । अतः वे इन भावों से बचने की सलाह देते हैं । इन निम्नभावों से औदात्य की सृष्टि संभव नहीं है ।
वे औदात्य के लिए उल्लास, हर्ष, विस्मय आदि भव्य भावों को आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार भव्य भावों से आत्मा का उत्कर्ष होता है और निम्न भावों से अपकर्ष । भव्यभाव पाठक की सम्पूर्ण चेतना को अभिभूत कर सकते हैं । अरस्तू के अनुसार करुणा और भय त्रासदी नाटक के लिए अनिवार्य हैं किन्तु लोंजाइनस की दृष्टि में ये दोनों निम्न या क्षुद्रभाव है और औदात्य के विरोधी हैं ।
3. अलंकारों का समुचित प्रयोग
कलात्मक साधनों में औदात्य की सृष्टि के लिए अलंकारों का प्रमुख स्थान है। इसलिए उन्होंने औदात्य के पाँच स्रोतों में भाव के बाद तीसरे स्थान पर अलंकार को ही रखा है । उनके अनुसार अलंकार साध्य (लक्ष्य) नहीं हैं, साधन हैं । औदात्य साध्य है । अतः अलंकारों का समुचित प्रयोग आवश्यक है जिससे औदात्य (साध्य) के प्रभाव को तीव्र कर सकें ।
लोंजाइनस एक प्रकार से अलंकारों को काव्य की आत्मा के रूप में मानते हैं। उनका मत है कि अलंकारों का प्रयोग स्थान, विषय, परिस्थिति और उद्देश्य के अनुसार प्रासंगिक होना चाहिए । अप्रासंगिक और अनावश्यक प्रयोग उन्हें मान्य न था ।
दूसरी बात यह है कि अलंकारों का प्रयोग इस ढंग से करना चाहिए कि पाठकों को पता ही न चले कि यहाँ अलंकार है भी । अर्थात् काव्य में उनका प्रयोग सहज स्वाभाविक रूप में करना चाहिए, अन्यथा वे कविता कामिनी का श्रृंगार न करके उसका बोझ बन जाएँगे।
तीसरी बात यह है कि अलंकारों के अतिशय प्रयोग से कवि को बचना चाहिए । सारांश यह है कि औदात्य के लिए अलंकार अपेक्षित तो हैं पर स्वाभाविक तथा मर्यादित रूप में हों ।
‘पेरिइप्सुस’ के 44 अध्यायों में 14 अध्याय अलंकार पर हैं । उनके अनुसार प्रमुख अलंकारों में प्रश्न, विपर्यय, व्यतिक्रम, पुनरावृत्ति, रूप परिवर्तन, उपमा, रुपक आदि हैं । इन अलंकारों के उदाहरण देकर लोंजाइनस ने यह दिखाना चाहा कि औदात्य की उत्पत्ति में अलंकारों का क्या योगदान है ।
निष्कर्ष रूप में अलंकार संबंधी उनके सामान्य मंतव्य इस प्रकार हैं :
- 1. अलंकारों का यदि समुचित प्रयोग किया जाए तो वे औदात्य के प्रभाव में चार चाँद लगा देते हैं ।
- 2. अलंकार साधन हैं औदात्य साध्य (लक्ष्य)।
- 3. अलंकारों का प्रयोग प्रासंगिक होना चाहिए ।
- 4. अलंकारों का प्रयोग सहज स्वाभाविक होना चाहिए ।
- 5. अतिशय अलंकारों का प्रयोग उचित नहीं है ।
4. उदात्त या उत्कृष्ट भाषा
इसके अन्तर्गत लोंजाइनस ने शब्दावली, पद, रूपक, उपमा आदि पर विचार किया है । औदात्य के लिए उपयुक्त और प्रभावशाली शब्दों का प्रयोग आवश्यक है । ऐसे ही शब्द पाठकों को आकृष्ट और आनंदित कर सकते हैं । इन्हीं से शैली में गरिमा, रमणीयता, शक्ति आदि गुण आते हैं ।
डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है कि “सुन्दर शब्द ही वास्तव में विचारों को विशेष प्रकार का आलोक प्रदान करते हैं" ( काव्य में उदात्त, पृ. 91) । शब्दों का चयन, प्रकरण एवं प्रसंग के अनुकूल होना चाहिए । यदि प्रकरण हल्का हो तो उसके लिए वैसे ही पद काम में लेना चाहिए और प्रकरण गंभीर हो तो उसके अनुरूप ही पदों का प्रयोग करना चाहिए । हर जगह गरिमामय भाषा का प्रयोग उचित नहीं है । डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है कि “छोटी-छोटी बातों को बड़ी-बड़ी और भारी भरकम संज्ञा देना किसी छोटे बालक के मुँह पर पूरे आकारवाला मुखौटा लगा देने के समान है ।”
ललित (मनोहर, सुंदर) शब्दावली की तुलना में कभी-कभी परिचित या सहज शब्दावली अधिक प्रभावशाली होती है क्योंकि दैनिक जीवन से शब्द लेने के कारण वह तुरंत पहचान में आ जाते हैं । जानी पहचानी चीज अधिक विश्वसनीय होती है । लोंजाइनस की इस बात का समर्थन वर्ड्सवर्थ ने भी किया है।
5. गरिमामय रचना विधान
लोंजाइनस ने उदात्त भाषा में शब्दों के चयन पर बल दिया और गरिमामय रचना विधान में पदों के समुचित विन्यास पर बल दिया है । शब्द अच्छे से अच्छे हों ही पर उनका विन्यास या गठन ठीक न हो तो उनमें सौंदर्य व्यक्त नहीं हो सकता । किन्तु गरिमामय रचना विधान में केवल शब्दों के विन्यास का ही निरूपण नहीं है । रचना विधान के अन्तर्गत उन्होंने समन्वय, सामंजस्य जो रचना का प्राणतत्त्व है उसे भी महत्त्व दिया है ।
औदात्य के चार तत्वों- विचार, भाव, अलंकार और भाषा में सामंजस्य या समन्वय होने पर ही औदात्य की सृष्टि संभव है । ये चारों तत्त्व अलग-अलग रहकर सौन्दर्यवर्धक नहीं होते, एक दूसरे से जुड़कर ही सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं । कैसे विचार के साथ कैसे भाव हों, उसमें कौन से अलंकार उपयुक्त होंगें, किस तरह के शब्द हों, उनका विन्यास कैसे हो, इन बातों का ठीक-ठीक आकलन किए बिना रचना में गरिमा नहीं आती ।
किन्तु ये सभी तो साधन मात्र हैं- इनका साध्य (लक्ष्य) तो औदात्य ही है, अतः इनकी सफलता और महत्ता साध्य (औदात्य) की उपलब्धि में है । लोंजाइनस का मानना है कि जैसे बाँसुरी की मधुर तान श्रोताओं को अपनी ओर खींचती है वैसे ही सामंजस्यपूर्ण रचना भी पाठकों की आत्मा को छू लेती है ।
औदात्य के बाधक तत्त्व
लोंज़ाइनस ने उन तत्त्वों को भी स्पष्ट किया है जो औदात्य की सृष्टि में बाधक हैं । उनके अनुसार तीन दोष औदात्य के बाधक हैं (1) शब्दाडंबर, (2) बालिशता और (3) भावाडंबर ।
1. शब्दाडंबर (Bombast) — चंचल पद गुम्फन (पिरोना), असंयत वाग्विस्तार, हीन और क्षुद्र अर्थवाले शब्दों का प्रयोग औदात्य के बाधक हैं । अतः ये त्याज्य हैं । शब्दाडंबर से तात्पर्य अतिशयोक्तिपूर्ण कथन से भी है ।
2. बालिशता (Puerility-बचकानापन) - बालिशता का अर्थ बचकानापन है और यह भव्यता का विलोम है । जब लेखक अप्रौढ़ता के कारण किसी रचना को भड़कदार बना देता है तो उसमें केवल कृत्रिमता हाथ लगती है । जैसे गिद्ध को ‘जीवित समाधि’ कहना बचकानापन है ।
3. भावाडंबर (False passion) - भावाडंबर से तात्पर्य है जहाँ भाव की आवश्यकता नहीं है वरन् संयम की आवश्यकता है वहाँ अमर्यादित होकर भावों की अभिव्यक्ति करना । इसके अतिरिक्त अत्यधिक संक्षिप्त कथन, अस्पष्ट कथन, अनुचित विचार, ग्राम्यपदों का प्रयोग, कर्णकटुभाषा, विषयानुकूल शब्दों का अभाव आदि दोषों से रचना का प्रभाव नष्ट हो जाता है ।
मूल्यांकन
1. पाश्चात्य परम्परा में कवि के व्यक्तित्व को महत्त्व प्रदान करने के कारण लोंजाइनस को प्रथम स्वच्छन्दतावादी आलोचक माना जाता है ।
2. औदात्य सिद्धान्त की प्रतिष्ठा भी सर्वप्रथम लोंजाइनस द्वारा हुई । आधुनिक कला समीक्षा में अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त की अपेक्षा औदात्य को ही अधिक महत्त्व प्राप्त है।
3. लोंजाइनस महान् चिन्तक और व्याख्याता थे । उन्होंने औदात्य को एक व्यापक रूप प्रदान किया है । औदात्य के अन्तर्गत कवि का व्यक्तित्व, विचार, भाव, अलंकार, भाषा, रचना विधान सब कुछ समाविष्ट है । इन सबके समन्वय पर भी बल दिया है। 4. काव्य के उत्कर्ष और अपकर्ष की उन्हें अद्भुत पहचान है और उसे व्यक्त करने वाली समर्थ भाषा की भी उन्हें पहचान है ।
5. लोंजाइनस ने साहसपूर्वक उच्च स्वर में घोषणा की थी कि आनन्द और एकमात्र आनन्द ही काव्य का प्रयोजन है जो भारतीय रस सिद्धान्त के अनुकूल है।
6. लोंजाइनस सुरुचि सम्पन्न, प्रबुद्ध भावक ( भाव उत्पन्न करनेवाला) हैं । वे काव्य के सौन्दर्य का आस्वादन स्वयं कर सकते हैं और दूसरों को भी करा सकते हैं।
7. उन्होंने कवि में विचार और भाव की, रचना में उदात्त की और पाठक में आनन्द की स्थिति दिखाकर काव्य को व्यापक आयाम दिया है।
8. लोंजाइनस प्राचीन होते हुए भी नवीन हैं क्योंकि उनकी अभी भी प्रासंगिकता है। वे नवीन ही नहीं आधुनिक भी हैं।
9. कुंतक का वक्रोक्तिवाद, औदात्य सिद्धान्त के सर्वाधिक निकट है।
10. जैसा स्वाभाविक है, लोंजाइनस के औदात्य सिद्धान्त की कुछ सीमाएँ भी हैं । उन्होंने औदात्य के मूल अर्थ को भुला दिया है । औदात्य का मूल अर्थ है- उच्च विचार या ऐसी भावनाएँ जो त्याग और परोपकार की प्रेरक हों । इस दृष्टि से औदात्य एक चारित्रिक या नैतिक तत्त्व है, उसका कला से सीधा सम्बन्ध नहीं है।
दूसरी बात यह है कि भव्य और उदात्त एक ही अर्थ के वाचक हैं, अतः साधन रूप में भव्य भावावेग की क्या आवश्यकता है ?
तीसरी बात यह है कि ‘पेरिइप्सुस’ की भाषा काव्यात्मक और चक्करदार है जिसमें अभिप्राय छिप सा जाता है । विषयान्तर और अनपेक्षित विस्तार में वे प्रायः उलझ जाते हैं।
चौथी चीज यह है कि अलंकार का सम्बन्ध सौन्दर्य, माधुर्य और आनंन्द से है, औदात्य से नहीं है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त कतिपय कमियों के बावजूद लोंजाइनस का ग्रन्थ ‘पेरिइप्सुस’ यूनानी आलोचना का एकमात्र सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ है । औदात्य सिद्धान्त उसकी मौलिक देन है जिसने आगे चलकर ड्राइडन, एडिसन, पोप, वर्ड्सवर्थ आदि को प्रभावित किया । यह भी मानना पड़ेगा कि उदात्त का विश्लेषण और समग्र विवेचन जितना लोंजाइनस के ग्रन्थ में है उतना भारतीय काव्यशास्त्र में नहीं ।
उनके विचार अत्यंत मौलिक, सार्वभौम और चिरन्तन हैं । उनका मत है कि ‘प्रतिभा का एक स्पर्श असंख्य दोषों को दूर कर सकती है । अतः प्रतिभा ही वरेण्य (पूजनीय)है।’ अलंकार के साथ औदात्य का सम्बन्ध स्थापित कर उन्होंने काव्य में औदात्य और सौन्दर्य का समर्थन किया । जिस काव्य में ये दोनों गुण होगें वह महान काव्य की संज्ञा अवश्य प्राप्त करेगा ।
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